भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुनिया के लिए / अनिल जनविजय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1

तुम
एक आकार भर नहीं हो
एक ग्लोब भर नहीं हो तुम
जिसे जिसने भी
जब चाहा, जैसे चाहा घुमा लिया
मन हुआ तो अलमारी में छुपा लिया

तुम पूरा विश्व हो
दुनिया हो भरी-पूरी, गति हो
शक्ति हो, संगीत हो
कविता हो, आत्मा हो
दोस्त हो तुम आख़िर
जीवन हो तुम
मेरी दुनिया

2
आज सुबह की सफ़ेदी की तरह
सफ़ेद क्यों हो दुनिया ?

सफ़ेद क्यों हो तुम
बुर्राक हिम की तरह
उदास क्यों हो ?

तुम्हारी इस उदासी पर क्या कहूँ मैं
क्या लिखूँ मैं तुम्हारी इस उदासी पर

तुम इतनी शान्त, इतनी मौन
क्यों हो आज ?
तुम्हारी आँखें इतनी सूनी क्यों हैं ?
तुम आज इतनी ख़ामोश
इतनी वीरान क्यों हो दुनिया ?

3
सर्दियों की
सिन्दूरी धूप की तरह गर्म
तुम्हारा प्यार
मेरी नींद में कैद है

मेरी नींद में कैद हो तुम
तुम्हारी आँखें, तुम्हारे बाल
तुम्हारे गाल और तुम्हारे होंठ
और दहकता हुआ तुम्हारा प्यार
मेरे दामन की गिरह से बँधा है

और तुम कहीं दूर खड़ी हो
मेरी नींद के बाहर
चुपचाप उदास