भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुनिया के सारे कुएँ / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
मँडरा रहा है यह सूरज
अपना प्रबल प्रकाश लिए
मेरे घर के चारों ओर
उसके प्रवेश के लिए
काफ़ी है एक छोटा-सा सूराख़ ही
और ज़िन्दगी में
जो भी अर्जित किया है मैंने
उसे बाहर निकाल देने के लिए
काफ़ी होगा एक सूराख़ ही
और प्रशंसनीय है यह तालाब
मिट्टी में बने हज़ार छिद्रों के बावजूद
बचाए रखता है अपनी अस्मिता
और
वंदनीय हो तुम
दुनिया के सारे कुओ !
पाताल से भी खींचकर सारा जल
बुझा देते हो प्यास हर प्राणी की ।