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दुनिया को फ़क़त ख़ाबे-परीशां पाया / रतन पंडोरवी

दुनिया को फ़क़त ख़ाबे-परीशां पाया
हर गुल को यहां खारे-मगीलां पाया
धोखा है ज़रो-मालो-मनालो-सरबत
इन सब को 'रतन' मूज़िबे-इसियां पाया।

खाली हो जो फूलों से गुलिस्तां कोई
कम रुतबा नहीं उस से बयाबां कोई
दुनिया की रविश देख के कहता हूँ 'रतन'
इंसान के बस में न हो इंसां कोई।

दौलत की तरक़्क़ी है सख़ावत में निहां
है मुल्क की बेहदूद तिजारत में निहां
जीना है अगर दहर में जीने की तरह
ये वस्फ़ है आपस की महब्बत में निहां।

दुनिया की निगाहों में समाते जाओ
ये जज़्बा महब्बत का दिखते जाओ
ईसार-ए-महब्बत का तक़ाज़ा है 'रतन'
ख़ुद डूब के साहिल को बनाते जाओ।