भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुनिया से परे जिस्म के इस बाब में आए / रियाज़ लतीफ़
Kavita Kosh से
दुनिया से परे जिस्म के इस बाब में आए
हम ख़ुद से जुदा हो के तिरे ख़्वाब में आए
कुछ ऐसे भी हमवार की हर सतह को अपनी
मौज़ों की तरह हम तिरे पायाब में आए
उन को भी अबद के किसी साहिल पे उतारो
वो लम्स जो इस रात के सैलाब में आए
इक नक़्श तो ठहरा था रवानी के बदन पर
जब बन के भँवर हम तिरे गिर्दाब में आए
बिखराओ के शहपर पे हम उतरे पे ज़मीं पर
कुछ फैल के इस नुक़्ता-ए-नायाब में आए
थे ग़ैब के तेशे से तराशे हुए हम तब
अंगड़ाई की सूरत तिरी मेहराब में आए