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दुर्दशा मिट्टी की होती / हरिवंशराय बच्चन

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दुर्दशा मिट्टी की होती!

कर आशा, विचार, स्वप्नों से,
भावों से श्रृंगार,
देख निमिष भर लेता कोई सब श्रृंगार उतार!
आज पाया जो, कल खोती!

मिट्टी ले चलती है सिर पर,
सोने का संसार,
मंजिल पर होता है मिट्टी पर मिट्टी का भार!
भार यह क्यों इतना ढोती!

प्रति प्रभात का अंत निशा है,
प्रति रजनी का, प्रात,
मिट्टी सहती तोम तिमिर का, किरणों का आघात!
सुप्त हो जगती, जग सोती!
दुर्दशा मिट्टी की होती!