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दुर्दिनों में ... / उत्पल बैनर्जी
Kavita Kosh से
दुर्दिनों में जब
रूठ जाएँगी प्रेमिकाएँ
शुभचिन्तक तलाश लेंगे
न मिल पाने के अचूक बहाने
हम तब भी नहीं आएँगे कहने कि
आजकल हम अकेले हैं
असंख्य नक्षत्रों के बीच
चाँद की तरह... बिलकुल अकेले!
हमें कहीं भीतर तक
पोर-पोर खण्डहर होते देख
अपनी-अपनी विवशताओं में बँधे
दिवंगत माता-पिता
अनन्त की किसी खिड़की से
बस हाथ हिलाकर सान्त्वना-भर दे सकेंगे
हम तब भी नहीं आएँगे कहने कि
अब हम
सहेजे नहीं जाते कहीं भी!
हमारे दुखों को
और घना कर जाएँगे देवता
मुरझा जाएँगे हमारे नन्हें पौधों के
फूल-से सपने
हम तब भी नहीं आएँगे कहने कि
हमारे बच्चों के आँसुओं में
कोई खिलौना टूटा है!
हम कभी नहीं आएँगे कहने कि
इन दिनों
अन्धेरा हमारे घर के भीतर तक घुस आया है !!