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दुविधा / मलय रायचौधुरी / दिवाकर ए० पी० पाल

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घेर लिया मुझे। वापसी के वक्त।
छह या सात होंगे वे। सभी
हथियारबन्द। जाते हुए ही लगा था मुझे
कुछ बुरा होने को है। ख़ुद को मानसिक तौर पर
तैयार किया मैंने, कि पहला हमला मैं नहीं करूँगा।

एक लुटेरे ने आस्तीन पकड़ कर कहा —
लड़की चाहिए क्या?
मामा ! चाल छोड़कर यहाँ कैसे?
ख़ुद को शान्त रखने कि कोशिश मे भींचे हुए दाँत।
ठीक उसी पल ठुड्डी पर एक तेज़ प्रहार
और महसूस किया मैंने गर्म, रक्तिम, झाग का प्रवाह।

एक झटका सा लगा। और बैठ गया मैं। गश खाकर।
एक खँजर की चमक; हैलोजन की तेज़ रोशनी का परावर्तन
और एक फ़लक पर राम, और दूसरी पर काली के चिन्ह।

तुरन्त छँट गई भीड़। ईश्वरीय सत्ता की शक्ति
शायद कोई नहीं जान सकता।
जिन्नातों की-सी व्यवहारिकता:
मानव-मन की दुविधा — प्रेम से प्रेम नहीं कर सकता.

वे छह-सात लोग, घेर रखा था जिन्होने मुझे;
अचानक ग़ायब हो गए। किसी रहस्य की तरह।
1986

मूल बंगला से अनुवाद : दिवाकर ए० पी० पाल