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दु:स्वप्न / अरुण आदित्य

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रात का दूसरा या तीसरा प्रहर था
निगाह अचानक दीवार घड़ी पर पड़ी
उल्टी दिशा में चल रही थीं उसकी सुइयाँ
 
कोने में रखे गमले में भी उग आया था विस्मय
वहाँ पत्तियों से हरा रंग गायब था
और फूलों से लाल
 
बच्चे के खिलौनों से भी हुआ था खिलवाड़
हैण्ड ग्रेनेड जैसी दिख रही थी क्रिकेट की गेंद
तमंचे की नाल में तब्दील हो गई थी बांसुरी
 
हिम्मत करके बुकशेल्फ़ की तरफ़ देखा
किताबें सिर झुकाए पंक्तिबद्ध
जा रही थीं कबाड़ख़ाने की ओर
अचानक किसी शरारती किताब ने धक्का दिया
ज़मीन पर गिर गई बच्चे की ड्राइंग बुक
खुल गया वह पन्ना जिसमें उसने बनाया था
जंगल में भटक गए आदमी का चित्र
मगर ताज्जुब कि उस दृश्य से
अदृश्य हो चुका था आदमी
दृश्यमान था सिर्फ़ और सिर्फ़ जंगल
 
कमरे में बहुत अन्धेरा था
पर उस बहुत अन्धेरे में भी
बहुत साफ़-साफ़ दिख रहा था ये सारा उलटफेर
 
उजाले के लिए बल्ब का स्विच दबाना चाहा
कि लगा 220 वोल्ट का झटका
और इस झटके ने ला पटका मुझे
नींद और स्वप्न से बाहर
 
घबराहट में टटोलने लगा अपना दिल
वह धड़क रहा था बदस्तूर
सीने में बाईं तरफ़
मैंने राहत की सांस ली
कुछ तो है जो अपनी सही जगह पर है ।