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दूरियाँ को मिटाने चलें तो चलें / कैलाश झा 'किंकर'
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दूरियाँ को मिटाने चलें तो चलें
गढ़ने दिल के फसाने चलें तो चलें।
जातियों के मकड़जाल से अब निकल
देश को अब सजाने चलें तो चलें।
मंथराओं की जो अनसुनी करके अब
प्रेम का घर बसाने चलें तो चलें।
ज्ञान की फिर से गंगा बहे हिन्द में
पीढ़ियों को पढ़ाने चलें तो चलें।
देशभक्ति की धारा हुई कुंद है
देश को फिर जगाने चलें तो चलें।
एकता तोड़ती है सियासत सदा
बात सबको बताने चलें तो चलें।
बात साहित्य की हर तरफ़ हो सके
सबके हित सिर खपाने चलें तो चलें।
आ गया है नया साल खुशियाँ लिए
रोते को अब हँसाने चलें तो चलें।