भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूरी / किरण मल्होत्रा
Kavita Kosh से
एक ऊँचे देवदार ने
मुझे बुलाया
मेरे स्वागत में
बडी- बडी बाहों को
खूब हिलाया
चाह कर भी
मैं
उससे मिल न पाई
बातें कुछ जो
कहनी थी कभी
कह न पाई
दोंनो के बीच
ऊँचाई आ गई
अपने अपने मन की
मन में रह गई
ऊँचे पहाडों पर बैठ
तुम देवदार
होते चले गए
और ऊँचे
समय की गर्दिशों से
होती चली गई
मैं और गहरी
अंततः फिर वही
बीच की दूरी
वहीं रह गई
ऊँचाई और गहराई
एक-दूजे की
पूरक बन
मौन-सी रह गईं