भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूर्वा / निधि सक्सेना
Kavita Kosh से
ओ दूर्वा
तुम जो अपनी लचीली देह लिए खड़ी रहती हो
हर सुनी अनसुनी आहट पर झुक जाती हो...
धूल के कण अलक से लगाती हो...
हर पग सहलाती हो
सहमी काँपती दरकती
भीतर भीतर रोती...
हर क्षण समर्पित
निमिष निमिष पराजित
आकुल उपेक्षित...
क्या कभी प्रयास किया तुमने
क्या कभी सोचा भी ये
कि तनिक कठोर हो जाऊँ
कभी तो चुभूँ
अपनी व्यथा कहूँ
अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊँ...