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दूर, नील आकाश के पट पर / अज्ञेय

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दूर, नील आकाश के पट पर खचित-से,उस खँडहर के झरोखे में पड़कुलिया का जोड़ा बैठा है।
बेरी के वृक्ष पर बैठी हुई चील कठोर किन्तु उग्र अनुभूति-भरी पुकार द्वारा आकाश में उड़ते हुए अपने सहचर को बुला रही है।
अनभ्राकाश की विस्तीर्ण हल्की नीलिमा में दोपहरी का प्रकाश विलीन या व्याप्त हो कर एक अदृश्य किन्तु तीखी ज्योति से
चमक रहा है।
मैं बिल्कुल अकेली हूँ।
फिर भी न जाने क्यों, मेरे हृदय में वह जिज्ञासु तड़पन नहीं पूछती कि 'प्रियतम, तुम कहाँ हो!'...