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दूर करो, ठुकरा‌ओ चाहे, प्यारे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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दूर करो, ठुकरा‌ओ चाहे, प्यारे! घरसे निकलवा‌ओ।
खूब सता‌ओ, पर मुझको मनसे न कभी तुम बिसरा‌ओ॥
सदा चाहती मिले रहो तुम, पर जो तुम्हें यह चाह नहीं।
कभी मिलो मत, दूर रहो, मुझको इसकी परवाह नहीं॥
सुखसे सदा रहो तुम प्यारे! इसके सिवा कुछ चाह नहीं।
दुख देते जा‌ओ चुपके-से, रखने भी दो गवाह नहीं॥
चाहे जैसे रखो मुझे, पर मनसे कभी न भूल जा‌ओ॥-खूब०॥

नहीं चाहती सुखमें हिस्सा, नहीं चाहती धनमें भाग।
नहीं चाहती राय सुनो तुम, नहीं चाहती मैं अनुराग॥
नहीं चाहती आदर दो तुम, नहीं चाहती प्रेम-पराग।
यही चाहती भूलो मत, तुम सुखसे रहो, बस, यही सुहाग॥
अपनी चीजको चाहे जैसे बरतो, कभी मत सकुचा‌ओ॥-खूब०॥

यही सुहाग बड़ा भारी है, जो तुम नहीं भुलाते हो।
सता-सताकर निर्दयता से मुझको सदा रुलाते हो॥
दुःखोंके संदेश भेजकर बरबस पास बुलाते हो।
ठुकराते, गिर पड़ती, तब तुम भुजभर स्वयं उठाते हो॥
इसी तरह मेरी सुख-साधोंको पूरी करते जा‌ओ॥-खूब०॥

रुची तुम्हारी मेरी रुचि हो, चाह तुम्हारी मेरी चाह।
हो चाहे प्रतिकूल सर्वथा, इसकी मुझे न कुछ परवाह॥
चाहे दम घुट जाये, मुखसे कभी नहीं निकलेगी आह।
तुम ही प्राण प्राण हो मेरे, तुम ही सब चाहोंकी चाह॥
मेरा भाव नहीं बदलेगा, भले बदलते तुम जा‌ओ॥-खूब०॥