दूर करो या पास बुला लो / बलबीर सिंह 'रंग'
दूर करो या पास बुलालो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ।
साँसों का क्या ठौर-ठिकाना
कौन करे किसकी मेहमानी,
यहाँ किसी के दिन अपने हैं
और किसी की रात विरानी।
अपनी-अपनी राह सभी की
किसकी विदा, कहाँ का स्वागत?
रमते को जोगी कहते हैं पानी।
पतझर में बहार बाँधे हूँ, निर्जन हूँ, उद्यान नहीं हूँ।
दूर करो या पास बुलालो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ।
कर लूँगा स्वीकार मरण को
घृणा तुम्हारी सह न सकूँगा,
और व्यर्थ की सीमाओं में
रहना चाहूँ, रह न सकूँगा।
अगर मूक-मन की भाषा का
पढ़ना तुम्हें नहीं आता है,
तुम पूछो, चाहे मत पूछो
जो कहना है, कह न सकूँगा।
तुम जैसे निष्ठुर ठाकुर की पूजा हूँ, पाषाण नहीं हूँ।
दूर करो या पास बुलालो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ।
शलभों की गति-विधि से परिचित
जैसे रहती जलन आग की,
मधुपों के अधरों तक आती
जैसे पावनता पराग की।
तुमसे मेरा ऐसा क्या है
बुरा न मानो तो बतला दूँ,
मेरी साँसों तक आई है
गंध तुम्हारे अंग-राग की।
तुम गाओ आलाप न समझूँ, इतना तो नादान नहीं हूँ।
दूर करो या पास बुलालो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ।