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दूर पहाड़ी गाँव में / कविता भट्ट

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वीराने से एक मौन सी चीख निकलती है,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
किसी के होने की गवाही देती,
दो बूढे़ शरीरों को ढाँढ़स देती
बरखा-हवाओं से संघर्ष करती,
चिमनी काँपते हुए आह भरती,
खंडहर की खिड़की में विवश मचलती है,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
नौनिहाल हँसी बीते दिनों की बातें,
बूढ़े तन, पूस, करवट बदलती रातें।
बस मुठ्ठी भर राख है बुझे चूल्हे में,
तन में थमती हुई चन्द लम्बीसाँसें।
झेंपती-एक धीमी चिंगारी धुआँ उगलती है,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
बर्फ हो चुके हाथों की झुर्रियाँ शेष,
सिमटती धमनियाँ, कुछ गर्मियाँ शेष,
खंडहर दीवारों पर दो बूढ़ी परछाइयाँ,
चिम्नी-शिथिल प्रकाश सुस्त अँगड़ाइयाँ।
कमजोर बुझती -सी लौ अब भी जलती है।
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
बूढ़ी साँसों की इतिश्री कर डाली,
बसाने के लिए भावी युवा पीढ़ी।
मेरे पहाड़ी गाँवों की वह जवानी,
महानगरों की चादरों में रेशमी पैबन्द की तरह
सिमट हाथ मलती है।
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
जागती है जवानी बसों में लदने के लिए,
भगाती रहतीं, अन्तहीन नागिन -सी सड़कें।
बू़ढ़ी नब्जों की आवाज़ दबती ही जाती है,
बस के कोने वाली सीट पर, कोलाहल में,
उधेड़बुन में, मंजिल की तलाश चलती है,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
कदमों की आहटें पूछती हैं पता उसी का,
जैसे जानते ही नहीं, और नहीं पाते बता,
खो -सी जाती है हँसी, रोटी का भार उठा,
ओस से नहाई रोशनियाँ, कोहरे में लौटता,
स्नेह-स्पर्श को तरसती, भावना उबलती हैं,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।