भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूसरी ओर से / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
अगर खूब याद रखें तो भी
थोड़ी ही देर में भूल जाते कि कैसे दिख रहे हैं
हम इस क्षण उस दूसरी ओर से।
कितनी कातर, मुस्कान की हमारी यह मुद्रा
जो दूसरी ओर से दिखती शायद व्यंग्य,
तीसरी ओर से खीज और किसी परम कोण से
होती एक समर्पण।
कैसा दिखाई देता हमारा क्रोध औ हमारा प्रेम,
दूसरे किसी कोण से कैसे दिखते हमारे जीवन के ये कोण।
सभी दिशाएँ बदल जाएँ आईनों में तो भी
बहुत कम होते वह कोण जिधर से
ठीक ठीक हम देख पाते अपने होने का आकार।
और कितनी अनंत वे जगहें
जहाँ के बारे में सोचना भी असंभव
कि कैसा दिखेगा हमारा होना - वहाँ से।
जितना थोड़ा होता हमारे जानने में हमारा होना,
उससे भी कितना कम होता
हमारे जानने में हमारा दिखना।