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दूसरी स्त्री बिष्णुप्रिया का प्रसंग / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय

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स्वामी कोई हरि बोलता कहीं तो मूर्च्छित हो जाते
हरिबोल-हरिबोल कान में कहने पर ही चेतन होते
पहली स्त्री बासुकिदँस के कारण गई पाताल
तब सनातन मिश्र की पुत्री बिष्णुप्रिया के प्रेम में
पड़ गए महाप्रभु चैतन्य

शाँखकाँकन, सेंदूर और रजतनोपूर, एक ताँत
केवल यहीं दिया लग्नरात्रि और उसी में काट दी आयु

कण्ठ से कण्ठ लगना, दाँत से दाँत बजाकर चुम्बन
रतिकाल मोटी चोटी हाथ से खींच
कपाल-करतल से रगड़ना और कुँकुम का
मस्तक पर फैल जाना, नीबि का बन्ध झटकके तोड़ना
सब कर भगवान ने सप्ताह भर पश्चात
संन्यास ग्रहण किया

बदले में बिष्णुप्रिया को दे दिया सदैव
स्मृति में रखने का वचन
इसबार बिष्णुप्रिया मूर्च्छित, जागी तब पाया
गोद में अपना सिला विग्रह डाल चले गए है प्रभु
श्रीविष्णुप्रिया प्राणधन मान जीवन भर इसीकी की सेवा

कण्ठ से कण्ठ केवल लग पाती थी
पुनः कभी केलि कर नष्ट नहीं किया शरीर
पुनः कभी तोड़ न दी कटि काट न दिए कन्धे

गुड़हल के रक्त कुसुमों से भरी डाल
लगी की लगी रह गई अस्पर्शित, किसीने
इसे झँझोड़के तोड़ नहीं लिए इसके सब फूल
किसीने प्रेम में आकर कर नहीं दिया इसका नाश