दूसरोॅ सर्ग / रोमपाद / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
”महारानी आय स्वप्न विचेत्रे
निंदोॅ में देखलियै
आपनोॅ मित्र अवध के, दशरथ
केॅ चिन्तित रं पैलियै।
पूछलियै, की दुख के कारण?
तेॅ ई बात बतैलकै,
”सुत के बिना ही तीनों रानी
जोगिन भेष बनैलकै।
गुरु वशिष्ठ के कहला पर
तोरोॅ लुग छी ऐलां,
कत्तेॅ दिन के बाद अंग में
आबै के सुख पैलां।
जे उद्देश्य सें ऐलोॅ छी
हे मीत सुनोॅ ऊ बात,
शृंगी ऋषि के आशीष सें ही
कटतै विष के रात।
पुत्रेष्ठि यज्ञ केरोॅ ज्ञाता
हुनिये एक धरा पर,
ई तेॅ बात सभै के मालूम
जानै देव, चराचर।
अंगदेश के शृंगी ऋषि ही
हमरॉ दुख के त्राता,
कीर्ति अंग के, दान अंग के
उज्जवल जग में गाथा।
अंगदेश सेॅ दशरथ आगू
आय अवध रोॅ दशरथ,
हमरोॅ ऐवोॅ जाय कहीं न
शुभ मुहुर्त्त में बेरथ।“
रोमपाद के मुँह देखी केॅ
बोललै हुनकी रानी,
”जानी हुनकोॅ दुख सच्चे में
हृदय उठै छै कानी।
तोहें की बोललौ हुनका सें
ई भी बात बतावौ,
दुख सें हमरोॅ छाती फाटै
आरो नै दहलावोॅ।“
पटरानी के बात सुनी केॅ
रोमपाद समझाबै,
कुछ-कुछ याद करै तेॅ कुछ-कुछ
चिन्ता केॅ सोझराबै।
आखिर में ई बात कहलकै
”रानी धीर धरोॅ तों
कुछ भी रहेॅ असंभव; संभव
होतै हम्में छीं जों।“