मैं चारों तरफ़ फैले
परमात्मा के
नैसर्गिक सौंदर्य में
बंधकर रह गई हूँ
देखती हूँ
मूसलाधार बारिश में
झूम झूम कर नहाते पेड़
दूर नदी की धार में
एक कटा पेड़ बहते
गुड़हल पर मौसम का
पहला फूल खिलते
बया के घोसले से
कोयल को अंडे चुराते
सहसा दृश्य बदल जाता है
देखती हूँ
उस नदी का सूखना
किनारों की रेत हवा में
बवंडर बन फैलती है
हर दिशा में
हर दिशा से सवाल आता है
क्या परमात्मा की ज़रूरत नहीं
क्या उसे भी निसर्ग से उठा
आभासी चौखटे में पूजेगा मनुष्य
आभासी फूल ,प्रसाद चढ़ा
क्या करेगा
जब चैत्र वैशाख की
लू भरी तपती दोपहरी में
चलते-चलते थक जाएँगे पैर
फिर भी नहीं मिलेगी
एक पत्ते तक की छांव
विकास के इस दौर में
आखिर नैसर्गिक ज़रूरतों के लिए
कहाँ भटकेगा वह
इस सदी की
तमाम कोशिशें नाकाम हैं
अब तो साँस भी
बोतलबंद है
जिसे कोशिशों के बाद भी
न पाने की तड़प में
तड़प रहा है मनुष्य
आहत हूँ मैं
ढूँढ रही हूँ
प्रेम की उस बूंद को
जो परमात्मा में बसती है