दॄष्टि के चुम्बन / राकेश खंडेलवाल
दॄष्टि के चुम्बनों ने छुआ जब मुझे
खिलखिलाने लगी देह में रागिनी
सिक्त मधु की फुहारों से होकर नजर
आई हौले से मेरे नयन द्वार पर
ओट से चिलमनों की सरकती हुई
सारी बाधाओं को पंथ की पार कर
साथ अपने लिये एक मुस्कान की
जगमगाती हुई दूधिया रोशनी
दृश्य ले साथ में एक उस चित्र का
दाँत में जब उलझ रह गई ओढ़नी
मेरी अनुभूतियों की डगर पर बिछी
पूर्णिमा की बरसती हुई चाँदनी
ओस भीगी हुई पांखुरी सा परस
बिजलियाँ मेरे तन में जगाने लगा
धमनियों में घुलीं सरगमें सैंकड़ों
कतरा कतरा लहू गुनगुनाने लगा
धड़कनों में हजारों दिये जल गये
साँस सारंगियों को बजाने लगी
बँध गया पूर्ण अस्तित्व इक मंत्र में
एक सम्मोहिनी मुझपे छाने लगी
कर वशीभूत मन, वो लहरती रही
वह नजर एक अद्भुत लिये मोहिनी
चेतना एक पल में समाहित हुई
स्वप्न अवचेतनायें सजाने लगीं
वादियों में भटकती सुरभि पुष्प की
मानचित्रों को राहें बताने लगीं
ढाई अक्षर कबीरा के उलझे हुए
व्याख्यायें स्वयं अपनी करने लगे
चित्र लिपटे कुहासे में अंगनाई के
मोरपंखी रंगों से सँवरने लगे
कल्पना के सुखद एक आभास में
आज सुधियाँ हुईं मेरी उन्मादिनी