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देखकर तुमको फिरोजी दिन हुए / जयकृष्ण राय तुषार

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तुम्हें देखा
भूल बैठा मैं
काव्य के सारे सधे उपमान |
ओ अपरिचित !
लिख रहा तुमको
रूप का सबसे बड़ा प्रतिमान |

देख तुमको
खिलखिलाते फूल
जाग उठती शांत जल की झील ,
खिड़कियों को
गन्ध कस्तूरी मिली
जल उठी मन की बुझी कंदील ,
इन्द्रधनु सा
रूप तेरा देखकर
हो रहे पागल हिरन ,सीवान |


मौन जंगल सज
रहीं संगीत संध्याएं
खुले चिड़ियों के नये स्कूल,
कभी रक्खे थे
किताबों में जिन्हें
मोरपंखों को गये हम भूल ,
तू शरद की
चाँदनी शीतल
और हम दोपहर के दिनमान |


हाशिए नीले ,हरे होने लगे
लौट आये
फिर कलम के दिन,
कल्पनाओं के
गुलाबी पंख ओढ़े
हम तुम्हें लिखने लगे पल -छिन
हमें जाना था
मगर हम रुक गये
खोलकर बांधा हुआ सामान |


देखकर तुमको
फिरोजी दिन हुए
हवा में उड़ता हरा रुमाल ,
फिर कहीं
गुस्ताख भौरें ने छुआ
फूल का बायां गुलाबी गाल ,
सज गए फिर
मेज़ ,गुलदस्ते
पी रहे काफ़ी सुबह से लाँन |