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देखता हूँ मैं उसी का रूप हर इन्सान में / डी. एम. मिश्र

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देखता हूँ मैं उसी का रूप हर इन्सान में
रोशनी का कारवाँ ठहरा नहीं सुनसान में।

मंदिरों और मस्ज़िदों तक सिर्फ़ वो सीमित नहीं
दूर तक सत्ता उसी की देखिये ईमान में।

वो न जाने किस नज़र से देखता होेगा मुझे
किन्तु मैं तो खो गया उसकी मधुर मुस्कान में।

जिंदगी तक सौंप दी मैंने तुम्हारे हाथ में
फिर भी रोटी दे रहे हो तुम मुझे एहसान में।

एक अदना - सा सही, पर प्रश्न है यह न्याय का
शिव नहीं तो फिर कटे क्यों जिंदगी विषपान में।

फूल क्या अब एक भी पत्ता नहीं है डाल पर
पेड़ है फिर भी खड़ा मधुमास के अरमान में।