भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखती हूँ, सोचती हूँ / निकिता नैथानी
Kavita Kosh से
देखती हूँ, सोचती हूँ
पहले किसको सूली पर चढ़ाऊँ ?
इस अदालत के कटघरे में
पहले किन देवों को लाऊँ ?
एक ये हैं जो
जला देते हैं तुमको प्रेम कहकर
एक वो थे जो
जलाने को परीक्षा कह रहे थे
कल के हत्यारों को तुमने
मान दे भगवान माना
तो आज कैसे दानवों का
नाम उनको दे सकोगे ?
एक ये हैं जो
तुम्हारी अस्मिता को चीरते हैं
एक वो थे जो छल-कपट से
हरते तुम्हारा मान सदियों
कल के दरिन्दों को तुमने
दे क्षमा सम्मान माना
तो आज कैसे नीचता का
नाम उनको दे सकोगे ?
इस तरह तो यह सभ्यता ही
कटघरे में है समाई
कौन दोषी, कौन सच्चा
कैसे किसी को कह सकोगे ?
देखती हूँ, सोचती हूँ
पहले किसको सूली पर चढाऊँ ?
इस अदालत के कटघरे में
पहले किन देवों को लाऊँ ?