देखते ही रह गए हम लफ़्ज़ हर मिटता हुआ / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
देखते ही रह गए हम लफ़्ज़ हर मिटता हुआ ,
ज़िन्दगी के वर्क़ पे यह क्या तमाशा सा हुआ !
रात में थे चाँद सपने दिन हुआ सूरज बने ,
हसरतों का कारवां क्यूं कर यहीं ठहरा हुआ !
चाँद सूरज में भला अब फ़र्क भी क्या ख़ास है ,
एक सा चेहरा कभी धुँधला कभी निखरा हुआ !
ज़िन्दगी से जुड़ सके वो बस तमन्ना यह लिए ,
किस तरह से आदमी है देखिए बिखरा हुआ !
थक गए हैं घूमते यह चाँद तारे और ज़मीं ,
वक़्त आखिर किस लिए है इस कदर ठहरा हुआ !
वक़्त था जब दो जहां ये बात करते थे ‘मधुर’ ,
जब ज़मीं पथरा गई तो आसमां बहरा हुआ !