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देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है / मिर्ज़ा मोहम्मद तकी 'हवस'

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देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है
लोग कहते हैं के फिर फ़स्ल-ए-बहार आती है

ग़श चला आता है और आँख मुँदी जाती है
हम को क्या क्या मेरी बे-ताक़ती दिखलाती है

क्या सुना उस ने कहीं रूख़्सत-ए-गुल का मज़्कूर
अंदलीब आज कफ़स में पड़ी चिल्लाती है

ताएर-ए-रूह को परवाज़ का हर दम है ख़याल
कफ़स-ए-तन में मेरी जान ये घबराती है

देख रोते मुझे हँस हँस कहे जाना हर दम
जान से मुझ को तो तेरी य अदा भाती है

बज़्म-ए-हस्ती में तू बैठा है ‘हवस’ क्या ग़ाफिल
कुछ जो करना है तू कर उम्र चली जाती है