भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देखो ! वह कोई जोगन जँगल में गा रही है / 'अख्तर' शीरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखो ! वह कोई जोगन जँगल में गा रही है,
मौसीक़-ए-हज़ीं के दरिया बहा रही है

हर लरज़िशे-सबा में तूफ़ाँ उमड़ रहे हैं,
किस दुख भरी अदा से तानें लगा रही है ।
अठखेलियों का सिन है, हंस-बोलने का दिन है,
लेकिन न जाने क्यों वह आसूँ बहा रही है ।

है एक सितार उसके आग़ोशे-नाज़नीं में
दो नाजुक उँगलियों से जिसको बजा रही है ।

जँगल के जानवर कुछ बैठे हैं उसके आगे
रो-रोके जिनको अपनी बिपता सुना रही है ।
खूँख़्वार शेर भी हैं वहशी ग़ज़ाल भी हैं,
लेकिन वह सबके दिल पर सिक्का जमा रही है ।

कुछ साँप झूमते हैं रह-रह के मस्त होकर
इक मौजे-वज्द उनकी रग-रग पै छा रही है।