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देख कर ये क्रूर लीला / बीरेन्द्र कुमार महतो

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माथे पर कलंक, गोद में बच्चा,
भटक रहा रफ़्ता-रफ़्ता
देख रहा नज़ारा
ये जग सारा
लुट रही अबला नारी
बीच बाज़ार,
कभी यहाँ, कभी वहाँ,

जब से हुई वो सयानी
पड़ गया पीछे बड़ा राजघराना,
गाँव-घर की बहू-बेटियों को
बनाया अपना अशियाना,
देख, भूखे भेड़ियों ने
नोच-चोथ
उजाड़ दिया जीवन सारा,

रखे थे छुपा दिल में
कईं-कईं सपनें,
तोड़ दिए सब एक ही झटके में,
माँ-बाबा के अरमानों का
कर दिया ख़ून कतरा-कतरा,

तन ढ़कने को भी
नहीं मिल रहा अब तो चिथड़ा,
फूटी क़िस्मत ले
धुकुड़-धुकुड़ अपना जीना,
कभी ईंट भट्ठें में
कभी रेस्तराँ में,
कभी वैश्यशाला में
कभी नचनी घर में,
तो कभी चौक-चौराहे में
जल रही है
तप रही है
लुट रही है
जीवन के हर मोड़ पर,
जल रहा है तन-मन
सूखी डालियों-सा,

ज़िन्दगी जैसे ज़िन्दा लाश बन
सिर्फ जिये जा रही,
नारी होने का दर्द झेल रही
पल-पल गिरती-संभलती
कोख में लिए
बाबू साहेब की निशानी,
माँ रूपी नारी की
देख कर ये क्रूर लीला
धृतराष्ट्र बना जग सारा,....!

मूल नागपुरी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा