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देबकी चलली नहाबै ल, सासु परेखल रे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

देवकी की आँखे और शरीर का रंग देखकर उसकी सास शंका करने लगती है, क्योंकि उसका बेटा तो गोकुल में रहता है, वह गर्भवती कैसे हो गई? सास को शंका है कि उसकी बहू का किसी से अवैध संबंध हो गया है। बहू पटेवा से जाल बनाने का अनुरोध करती है; क्योंकि रात में छिपकर आये हुए अपने पति को वह फँसाकर अपनी सास की शंका दूर करना चाहती है। निश्चित समय पर पुत्रोत्पत्ति के बाद सास और ननद गाती-बजाती हैं तथा उसका प्रियतम भी खुशी में सारा नगर लुटा देने को तैयार हो जाता है।

इस गीत में चावल का भात मूँग की दाल और माँगुर मछली की विशेषता बतलाते हुए दिखलाया गया है कि सौरगृह बिना पुत्र के नहीं सुहाता।

देबकी चलली नहाबै ल<ref>नहाने के लिए, ऋतु स्नान के लिए</ref>, सासु परेखल<ref>देखती है</ref> रे।
ललना, अँखिया धाबैन<ref>लगना; प्रतीत होना</ref> पिअर रँग, बदनो नय सोभैन रे॥1॥
मोर पूत बसै दूर देस, नगर गोखुला में रे।
ललना रे, कौन पुरुखबा से रिझली<ref>मोहित हो गई</ref>, रहली गरभ सेॅ रे॥2॥
घर पछुअरबा में बसै पटेबा भैया, तोहिं मोरा हितबन रे।
ललना रे, पाट सूत जाल बुनि देहो, कि पिआ के बझायब रे।
ललना रे, पिआ के बझाई हम राखब, सासु पतियायब<ref>विश्वास दिलाना</ref> रे॥3॥
बीति गेल छवो नवो मास, कि दिन तुलायल<ref>आ पहुँचा</ref> रे।
ललना रे, बेदना से बेआकुल परान, कि दगरिन बोलायब रे॥4॥
एक लात देल देहरी पर, दोसर ओसार<ref>बरामदा</ref> पर रे।
ललना रे, तेसर लात देलऊँ मुनहरघर<ref>घर का भीतरी भाग, जो अँधेरा रहता है</ref>, कि होरिला जलम भेल रे॥5॥
सासु मोरा उठली नाचैत, ननदी मोरी गाबैत रे।
ललना रे, हुनि परभु उठल चेहाए, नगर हम लुटायब रे॥6॥
भात होबै न<ref>नहीं होता है</ref> बिनु चाउर, दाल मूँगिया बिनु रे।
ललना रे, मछरी त भाबै माँगुर<ref>एक मछली</ref>, सोइर<ref>वह घर, जिसमें बच्चा पैदा हो; सूतिकागृह; सौरीघर</ref> न होरिला बिनु रे॥7॥

शब्दार्थ
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