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देवी / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

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सूर्यकिरण की रेखा-सी चौंधिया देती हो
मेरी आत्मा का अभ्यन्तर ।

अपना प्रेम और प्रार्थनाएँ लिए खड़ी हूँ
तुम्हारे आगे

आकुल और अनाथ
कहीं से बून्दभर गर्म ख़ून

छिटककर आया है मेरी अँजुली में
मान लेती हूँ उसे तुम्हारा आशीर्वाद ।

यह ख़ून का छींटा कहाँ से आया
किस बकरे, किस भैंसे,

किस कुँआरी, किस जीव से ?
कहाँ से ! कहाँ से !

मैं सवाल नहीं कर रही तुमसे
बलि का यह ख़ून पी जाने की आदत से गढ़ा

तुम्हारा उल्लास
मुझे रह-रहकर बनाता है नासमझ और जड़

तुम्हारे आसन के अस्तित्व के आगे
अवाक् हूँ मैं हमेशा से ।

युग-युग की ख़ामोशी से गढ़ी
तुम्हारी इस स्मित मुस्कान से

उभर आती है जो स्पर्धा
दुनिया उसे शक्ति कहकर पुकारती है

पुकारती है, दुर्गतिनाशिनी अभयवर दायिनी ।
मेरा मुँह क्यों नहीं खुलता

तुम्हें माँ कहकर पुकार तक नहीं पाती ।
मुझे लगता है

इनसान का विश्वास और वासना ही
विराजमान हैं आसन पर सज-धजकर

आदि-माँ रक्तमुखी देवी बन चमक रही है।

मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र