देव-बुध्दि / ‘हरिऔध’
कर लिये करवाल अकुण्ठिता।
कनक-कश्यप ने जब यों कहा।
तब महाप्रभु क्या परिव्याप्त है।
इस महाजड़ प्रस्तर-स्तम्भ में।1।
तब अकम्पित औ दृढ़ कण्ठ से।
यह कहा प्रहलाद प्रबुध्द ने।
जब महाप्रभु व्यापक विश्व है।
तब नहीं वह है किस वस्तु में।2।
पत्तो पत्तो प्रगट करते कीर्ति लोकोत्तारा हैं।
कीटें में भी प्रथित महिमा की प्रभा व्यंजिता है।
कैसे होगी न प्रभु-वर की स्तम्भ में दिव्य सत्ता।
जो धूली के सकल कण में है कला दृष्टि आती।3।
कोई भी है न इस जग में वस्तु ऐसी कहीं भी।
पाया जाता न कुछ जिसमें अंश आकाश का हो।
मैं पाता हूँ वियत सँगवाँ वायु और तेज को भी।
कैसे होगी न फिर उसमें नाथ की सूक्ष्म सत्ता।4।
ये बातें ऐ सहृदय जनो! हैं यही तो बताती।
जो है, आज्ञा, तिमिर-वलिता है वही दानवी भी।
ऐसे ही जो परम शुचि है दिव्य ज्योतिर्मयी है।
सद्भावों की प्रसव-भुवि है, है वही देव-बुध्दि।5।