भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देशान्तरित / लेस मरे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं घोंसला हूँ चलता-फिरता
वह अण्डा हूँ जो अब है ही नहीं,
मैं समुद्रतट, खाना बालू में फेंका हुआ,
छाया जो घोंघे चुनती है, छाया चिपक जाती है जो!
धुलकर चमकीला हो जाने के बाद की
अनुभूति हूँ मैं चकाचक,
अनुभूति हूँ मैं यहाँपन की-
चोंच की सीध में दौड़ती
दौड़ती डैने उठाए हुए फेन में-
रुकती, रुकी रहती,
पहाड़ी पहाड़ियों की और भोजनभट्ट सागर!
मैं हूँ गलतपन यहाँ का तब
जब सही हो भावना में उड़ना
मैं हूँ महान सहीपन की लम्बाई तब
जब दिन जलते हों-
विराट से लेकर
किसी अँधेरे में पड़े
सुनहरे गलफ़र तक
और फिर वापस उमड़ते हों उसी विराट‍ तक
भोजन-पानी के लिए, उपलाते आरामों की ख़ातिर-
तब तक, जब तक
सामने का सूरज, पीछे का सूरज न हो जाए
और रात के नन्हे, दूरस्थ दिन
लगने लगें एकदम अलग!
मेरे ही संग पहुँचती है
ठीक-ठीक संवेदना यहाँपन की!
जिसके लिए नाच नाचा गया- वह घोंसला हूँ मैं,
मैं हूँ सिर धुना हुआ,
मैं ही हूँ सागर-तट, खाने में पड़ी हुई बालू,
छाया में पड़ी हुई छड़ियाँ
और दोपहरी-सी तृण-छाया!


अंग्रेज़ी से अनुवाद : अनामिका