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देहों के रिश्ते / महेश सन्तोषी

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मैं यह अस्वीकार नहीं करती
कि कभी मेरे तुमसे देह के रिश्ते थे,
उन दिनों हम ज्यादातर
देह की भाषा ही बोलते थे
सुनते थे, समझते थे
वे हमारी देहों के उन्माद के
उत्सवों के दिन थे।

तुम विश्वास क्यों नहीं करते
कि मैं बदली नहीं हूँ
वैसी की वैसी हूँ, वही हूँ।
पर मैं अभी तक अपने
यौवन के पहले वसंत
प्यार की पहली सीढ़ी
पर ही नहीं खड़ी हूँ।
मैं बीते हुए अतीत कमो
कब का भूल गई हूँ।

समय ने जिन सम्बन्धों
पर आवरण ढांक रखा है
तुम उन्हें बार-बार निरावृत
क्यों करना चाहते हो?
उन्हें भूलना क्यों नहीं चाहते?
क्या तुम सिर्फ मेरी
देह को ही चाहते हो
मुझे नहीं चाहते?