देह, बाज़ार और रोशनी - 2 / यतीश कुमार
वक़्त से पहले
अँधेरा दस्तक देता है
शाम होते होते सभी खुद को
पेट के अंधेरे में गर्त कर लेते हैं
रंगीन कमरों से निकलती रोशनी
आँगन में धुँधली
और दरवाज़े पर अंधी हो जाती है
बच्चा वहाँ जन्मा जरूर
पर दूध कौन पिलाएगा
यह तय नहीं है
माँ मुट्ठियों में वक़्त को धकेलते
भोर के पहले पहर मिलती है
उस वक़्त दिखते हैं अजनबी चेहरे
देहरी से बाहर भागते-फिरते
दोपहर तक खिलखिलाहट में
नमकीन मुस्कुराहट पनाह पाती है
और शाम होते ही
सर्प की तरह फिर से फ़न फैलाती है
हर शाम ज़िंदगी
अपनी परिभाषा भूल जाती है
सिसकियों में घुली खिलखिलाहट
रात भर बेसुरा गीत गाती है
तभी रात कब्र में दफन आठ साल का लड़का
कुछ बासी फूलों में सांस फूँकता है
और ग्यारह साल की लड़की के हाथों में सौंप देता है
कब्र के स्याह अँधेरें में एक जोड़ी आँखें चमक उठती हैं।