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देह-यात्रा / गिरिजाकुमार माथुर

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चीरकर असंख्य आकारों की झिल्लियाँ
बदलते हटाते अपार रूपरंग की कटोरियाँ
ले आई प्रकृति वामा
वामगतिशीला रचना को
वृहदों से सुकुमार तक
असार्थक दोष-दैत्यों से
सूक्ष्म-जटिल अवतार तक
जो महाव्याप्त चेतना-
-मिट्टी में पड़ी बीज बनी
चित्रमयी वनस्पति का
जो बेलों पादपों की ऊर्ध्वगति के निमित हुई
दोनों ओर पाँव धरते
पत्तों की चढ़ती सीढ़ियाँ
तरुओं में ढली काष्ठ रूप
फूलों में बनी केसर
भू-गर्भ की तमिस्रा में
धातुओं की कान्तिचन्द्रा
रसायन में गंधों का अन्तहीन उन्माद
मणियों के भीतर अशेष विस्तारों की झाँइयाँ
जल की मिठास में बनी तृप्तियों की शीतलता
पर्वत में मौन सहनशील गुरुता
झरनों में शिला मन का
एकाकी वांछाहीन उल्लास
वनमंजरियों में अदेखे उत्सर्ग की सुगंधराजि?

सागर के नीलकंठ में सर्व गरलों का स्वीकार
प्रतिदान में आशीष का उठाया हुआ मेघ-हाथ
धूपकनियों के फैलकर गिरते
सम्मोहित प्रपात में
बिन माँगे सोंधी गरमाई बाँटने का परितोष
हर जगह निर्भय घूमती हवा में
विकृतियों की दुर्गंध वात को फूँक उड़ाता समारोह
सनातन दूब का अपराजित अविश्वास
हज़ारों अनंजन जाति-फूलों का
रंगों में शेषहीन अनेकित नाच
विलयन और नाच
छोटे से छोटे टुकड़े के भीतर
प्रतिबिम्ब की तरह छिपा अर्थ
हर बार दुहराया हुआ एक दीपित विराट
वसुमती पृथ्वी के हाथों सजाए
अनाहत कान्तारों के बन्दनवार
वृहद गिरि-तोरणों पर टँके हुए
झीलों के शीशे गोल
फूलपत्ती के सलमोंवाले निरन्त हार
तालों में तैरते सुनहरे शुक्र के नक्षत्र-अक्स
माला की चमकीली लटकन
कुंईं के कुंडल
रिमझिम झमकते ताजे़ मेघ के गुलाबपाश
मिट्टी के इत्र की अभिषेकित फुहार
और वह सारे ‘संभावित’ वसन्त
जब हर छरहरी टहनी और तिनके की काया में
भरती हुई अनहोनी उजास
बाहर फेंकने लगती है छिटकते हुए रंग
फेंकती है हल्के हाथों से हवा में
खुशबुओं के गुच्छे
आपस में गुँथी हुई
सोंधी और भीनी और गाढ़ी सुवास के
अभी खड़े
अभी अन्तर्ध्यान आकार
जिनके उड़ते हुए जादू में
किसी से लिपटने के समयातीत क्षण को-
मन है उमड़ता
भाप सी उठती है पूरे शरीर में
नसों की नदियों में
हज़ारों छोटे घुँघरुओं की गूँज
एड़ी से कानों तक-
लाल होते आँखों के कोए
सारे दृश्य तैरते हुए हल्की-हल्की धुँध में
लुभावने भुलावे का नशा
तोड़ देता है उन सभी जगहों के संकोच
स्त्रियाँ जिन्हें नज़रों से बचाती हैं-

-और वह सारी चाँदनी रातों की
खिलखिलाती युवतियाअ
समान आयु और अनुपात
नंगे बदन नाचतीं नाट्यम और बैले
एक साथ मुड़ते और उठते
बाहों के लोच
तालबद्ध थिरकते कूल्हे
एक कोण पर उछलते और गिरती हुई
निमिषों में
अधूरे चन्द्रमा के चाप सी
गदबदी भरी हुई जंघाएँ
आधे-आधे घूमते

मांसल पहिए आराएँ
जेसे अनेक आइनों में पड़ता हो
एक ही निर्वसन देह का
नाचता प्रतिबिम्ब
पैर के अँगूठों पर
ऊँची नीची होतीं
चमकती हुई दर्जनों सदेह फिरकिनी
और दर्पण आधे सफ़ेद, आधे साँवले
चीज़ों पर पूर्णिमाओं के जालीदार साए
गोरे वक्षों के मुँह पर खींचे हुए
काली खरिया के गोल गोल घेरे
हर रोआँ एक इच्छा
हर इच्छा
बार-बार भोगे जाने के लिए तत्पर
-यह सब उसी के लिए
अभिनन्दित प्रतीक्षा में
जो इस चेतना प्रवाह की
हज़ारों स्फटिक छलनियों को पार कर आई
आखि़री छनी बूँद सा जन्म लेगा
द्रव्य और धातु
अग्नि और जीव रस की
जो लाएगी अपने साथ
एक आकाश
एक ज़मीन
हर बार नए फूल सी मनोहर।
अनन्त संस्कारों से शोधी हुई
निष्कलंक देह केसर-
-और वह सब भी उसके लिए
चेतना का रुद्र रूप
वह जो आदिम कराल है

अपनी मूल भयंकर कच्ची शक्लों में
वह घोर डरावना
वस्तुओं में बैठा अंधकार
जो धुल-धुलकर
अभी नहीं बना
अनूठी नीलिमा आकाश की
नहीं बना सलोनापन मिट्टी का
ठंडी छायाओं का
पुतलियों और पलकों का
देह के साँवले हिस्से
बाल और रोएँ
तितलियों के स्याह मख़मली रंग
पैज़ियों की पंख फैलाती
काही पंखुड़ियाँ
श्यामा भेड़ों का ऊन
पक्षियों के रोमदार काले भूरे अलवान
पशुओं ने बदन पर ओढे हुए कम्बल
घर का आश्वासन
स्लेट के टुकड़ों की ठंडी पहाड़ी छतें
कोयले ईंधन की नियंत्रित ऊष्मा चौके में
जैविक तृप्ति का आधार
लोहे के बदलते हुए रंग-रूप
जिन पर सभ्यता क्षिप्रगति से चलेगी
ग्रह लोकों पर उसकी भाषा गूँजेगी-
वही रेखाभासों के पीछे से झाँकता अंधकार
जिसके बिना आकृतियों की सत्ता
अधूरी है
दृश्य सभी अनुमानित सपाट, रिक्त
छबियाँ सब धूप में जलती हुई बत्तियाँ
कायाएँ पारदर्शी सी-
और, एक वह अशोधा हुआ नियमहीन अंधकार
कुपित निसर्ग से अधिक क्रूर
मन का ख़ौफ़नाक तर्करहित अंधलोक
सींग, खुर, पंजोंवाला
-उद्दंड अविवेक
जंगल की जिघांसु पशु याद
खूँदती, नोचती, भड़ककर चढ़ दौड़ती
वहशत
हमलावर बनैलापन
पूरे मानुष शरीर के भीतर
एक दूसरा छाया शरीर
त्वचा के अस्तर में
गुरिल्ला का
भीतरी तहों में नथुने फुंकारता
फड़कते प्लाज़्मा का भैंसासुर

वह जो बाहर फेंकता है
कालिख की अनवरत मोटी धार
गामा किरणों के मृत्युनद
भय, यंत्रणा, महात्रास
कुत्सित मनोभाव की मरोड़ों में छिपा हुआ
बैठा हुआ युद्ध, हत्याकांड के मसानों में
अन्याय के तहख़ानों में
चट्टानों से बँधी ठंडी ज़ंजीरों में
भूखे उदर
सूखी आँतों की सुरंगों में
वही, जिसकी नरकलीला से निकलते हैं
देह के अनगिनती हाहाकार
जीने के सन्ताप
छिने हुए अवसर
हाथ मलते पश्चाताप
झूठे लगे लांछन
मनगढ़ंत अपवाद
निर्दोषों की हत्या
बिना किए हुए अपराध
परमता के हाथों मतभेद का पुरस्कार
छाती में ईर्ष्या की कड़वी धुँधाती आग
पर शोषक स्वार्थ का ऑक्टोपसी जकड़ाव
अकारण डंक उठा फिरती हुई शत्रुता
साज़िश के मकड़जाल बुनती हुई प्रतिहिंसा
आदत से मजबूर कटखनी दुष्टता
औरों की देह चीर बढ़ने बाली सफल नीचता
किसी के मुँह तक आया हुआ झपट छीना ग्रास
परसी हुई भूखी थाली पर
बेरहम ठोकर की मार
चढ़ती बेल आँख बचा काटने वाली नफ़रत
हर बढ़ती हुई
रोशनीभरी अस्वीकारी प्रतिभा को
स्वागत में शूट करने वाली हत्यारी राजनीति
हारी हई भ्रष्ट शैतानी पद्धति
रंग भेद, नस्ल भेद
जाति वध, संस्कृति वध
विचारों की ख़ूनी दुश्मनी
मतवादी घृणाओं का उन्माद
बेनवाशी यंत्रणाघर
मानुष भट्टी गैस चैम्बर
ग़ैरइन्सानी कम्यून
मेढ़ों की तरह हाँके हुए
बें-बें करते आदमी
जर्मयुद्ध की ज़हरभरी लहकती हवा
समूची नदियों का पानी
बहता मोतीझरा, हैज़ा
हरे सागों में सोखा भस्मक रेडियम
दूध की हर बूँद में किलबिलाता
कैंसर का केकड़ा
पूरे जंगलों और बस्तियों को
राख बनाता महालेसर
शीतयुद्ध के विकृत तनावभरे चेहरे
देशान्तरगामी साज़िशें
क्रान्तियों के घिनौने निर्यात
अभिसंधिगृहदाहों
बड़े गिद्ध के पंजों से छूटती
हर इंसानी आकांक्षा के क़ातिल
टैंक-बूट कसे राष्ट्र
जहाँ हर आदमी एक क्रेट है
लोहे की चादरों में फिट किया हुआ
जहाँ पार्टी ही जनता है
दलनीति ही है आत्मा
घोर दमन क्रान्तिकारिता
अमानवी मशीन सी व्यवस्था जनतंत्र है-
जब दुनिया में
संस्कृति के छद्म नाम पर
अर्थ साम्राज्यों की होती है घुसपैठ
एक-दूसरे को चन्द्रमा तक नीचा दिखाने की होड़
आदमी के मंगल से विमुख
घोर पंथी महाध्वंसक विकट मारकों की दौड़-
एक व्यापक विक्षिप्ति का हिप्नोसिस
नग्नता, पिस्टल-संस्कृति
यौन क्रांति
रासायनिक अर्धसुप्त रंगों की फन्तासियाँ
यात्रा सूने अन्तरालों के त्रिशंकु की
विनाश-
पैशाचिक जौंक से चिपटे अभावों का नहीं
विनाश आपस का
एक साथ सारी दुनिया का
विनाश
खूबसूरत मुक्त आत्मा का
आदमी की हर सुकुमार परिभाषा का
यह सब वह सहेगा, बदलेगा-
हर जन्म में अपनी छाती पर उठाए हुए
अमानवी तर्कों की आततायी नियति
अन्यायों के पंजों से चुभकर छूटे न ख़ून
इस सारी शोकान्तिका में पड़ी
जूझेगी उसकी देह
दस डिग्री की नाज़ुक परिधि में
ठहरी हुई वह ऊष्मा
वह निरीह अरक्षित आवेष्ठन
जिसे एक मामूली काँटा भी छेद सकता है
किन्तु जो बन जाता अमाघ, अक्षत
हर स्थिति की जन्तु आँखों से
आँख मिलाने वाले
अपराजेय संकल्प से
पोर-पोर में समाई
एक अमन्द आँच से
जो भीतर की चमक फेंकती है त्वचा पर
आँखों में
चेहरे पर
तेज़ भावनाओं और तीखे विचारों में
सचाई की हर क़ीमत चुकाने में
शरणागत न होने में
अन्याय के निपट अस्वीकार में-
समझौते की कुबड़ी पीठ पर सवार
सुविधापरस्त दुनिया
जब भी ईमान बेचेगी, कुटिल सत्ताधारी परमता को
तब तब प्रतिरोध में उठेगी एक साथ मजबूत आवाज़
जो उसकी होगी
तालूसिली लाखों ज़बानों की बंद
प्रतिध्वनि से भरी
पीढ़ियों के बीच
आँच के पुल से फलाँगती
एक अस्वीकार से
दूसरे युग के अस्वीकार तक-
एक अधसुलझे प्रश्न से
दूसरे नए न्याय में समाप्तिहीन प्रश्न तक
क्योंकि
दुनिया नए न्याय में समाप्तिहीन प्रश्न तक
क्योंकि
दुनिया के सामने
ऊपर से चाहे कोई कितना ऐलान करे
इतिहास के निर्णय को कोई नहीं मानता
बीती असलियत को नहीं कोई पहिचानता
हर अच्छे नारे में अन्याय छिपा आता है
पहिले का सत्य कभी काम नहीं आता है।