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देह-राग / केशव

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उसके जिस्म की
हरियाली से होकर
गुजरते
लू में लेपटे
गर्दो-ग़ुबार
से भरे
कितने-कितने तूफ़ान
हर पत्ते पर जमती
तह-दर-तह धूल
पत्तों को लगता
पतझर
डाल-डाल होती नंगी

उसके जिस्म के पेड़ को
फिर तने को
भीतर ही भीतर
चाटती दीमक
एक ठूंठ
भर रह जाता
उसके जिस्म का
हरा-भरा पेड़

एक-एक कर ग़ायब होते
उसकी स्मृति से
देह के अच्छे दिन
देह का राग बन जाता
धीरे-धीरे देह का आर्त्तनाद
पहले-पहल
याद रहते उसे
एक ज़ख्म की तरह
देह के बुरे दिन
फिर दिन, दिन नहीं
यातना बन जाते
जिस यातना का
नहीं होता कोई चेहरा ।