भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देह दनादन सोंटे लगतो / शेष आनन्द मधुकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जखनी जेकरा जहिना कह दऽ,
तोर गोड़ पर लोटे लगतो।
ले के करुआ तेल हाथ में,
देह दनादन सोंटे लगतो।

तोहर भार सम्हारलक जहिया,
ई कुरसी के चारो पउआ।
केता कउआ मोर बन गेलन,

काँव-काँव हड़ताल, आमरन,
अनसन से, घबराना का हे।
तूँ हू हऽ कउये के बेटा,
जातो पर पतियाना का हे।

दूबर पातर ठठरी देहिया,
तोर नजर में मोटे लगतो।

बाप न फूटे, बेटा फोड़ऽ
बहू न फूटे, फोड़ऽ बेटी।
भासा, जात, धरम के रस्सी,
लगा के कस दऽ सभे नरेटी।

पाँच साल तक चाँदी काटऽ,
आउ पाँच ला बन जा भँइसा।
अंधरा, गूंगा, बहिरा बन के,
जेता चाहऽ बटोरऽ बन के,

तोरा ला ईमान, धरम सब,
भांग के जइसन घोंटे लगतो।

गद्दी ला दंगा करवा दऽ,
खत्म करे ला तोप चलावऽ।
तइयो अदमी साँस लेवे तो,
हवा में भी जहर मिलावऽ।

अप्पन जीवन देखे लागी,
कुर्सी के फिन नबज टटोलऽ।
प्रान जाय, कुर्सी न छूटे,
दसरथ अइसन कस के बोलऽ।

दूसर जब ई सब करवयतो,
हिरदा तोर कचोटे लगतो।

गर्मी में भागऽ तूँ सिमला,
जाड़ा में भागऽ कलककत्ता।
चौमासा कुर्सी मत छोड़ऽ,
न तो तोहर कटतो पत्ता।

अंतरिक्ष में रखऽ तिजोरी,
चाभी ओकर चांद में रक्खऽ।
जान अपन जो बचवल चाहऽ,
कहीं सिंह के मांद में रक्खऽ।

फिन देखिहऽ जे देखतो तोरा,
तुरत वहीं पर पोटे लगतो।