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देह / शंख घोष / रोहित प्रसाद पथिक
Kavita Kosh से
आ रहा था
सनातन मैदान से निकलकर
हृदय के ऊपर
बहुत ज़्यादा दबाव
धीरे-धीरे सुलगती आग
जिसे सामने से ग्रहण कर रहा हूँ ।
मेरे सामने खड़े हैं नगरवासी
जो हड़बड़ाकर चिल्लाए जा रहे हैं :
‘शरीर कहाँ है ? शरीर कहाँ है ?’
अब मैं यह सब कुछ नहीं सुन सकता हूँ,
पॉकेट में हैं एक धुँधला आईना,
टूटी कंघी, चादर, मुड़ी और नौका चप्पल
आ रहा था
मैं तुम्हारे लिए…!
मूल बांग्ला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक