दोपहर की उजली किरन / सुरेन्द्र स्निग्ध
बिचाली घाट से बहुत दूर
हुगली में तैरती है हमारी नाव
नाव में बैठी है
दोपहर की उजली किरन
और उसी की
एक जोड़ी आँखें
तैर रही हैं नाव में
हमारे इर्द-गिर्द
तैर रही हैं आँखें
और लहरों पर दूर-दूर तक
बिछा रही हैं अपनी चमक
बुन रही हैं किरनों का जाल
उधर दूर पूरब में
डोल रहा है लहरों पर
महानगर कलकत्ता
उसके खुले आकाश को
कर रहा है क़ैद
इन्हीं आँखों की किरनों का जाल
इन्हीं दो आँखों की चमक
अल्हड़ मछलियों की तरह
कर रही हैं अठखेलियाँ
हुगली की लहरों के संग
उधर पुआल से लदी नौकाओं के पीछे
दूर बिचाली घाट पर
खड़े हैं हमारे कवि-मित्र रंजीत वर्मा, मदन कश्यप
रवीन्द्र भारती, अनवर शमीम
और ढेर सारे
कलकत्ता के कवि-मित्र
जनकवि नागार्जुन के साथ
भीड़ से थोड़ा अलग
खड़े हैं आलोचक-मित्र शम्भुनाथ
टकटकी लगाए देख रहे हैं
हमारी नाव
जो और दूर और दूर
होती चली जा रही है
बिचाली घाट से
खड़े थे हम लोग
कुछ ही देर पहले
जनकवि नागार्जुन के साथ
जूट मिल के छँटनीग्रस्त मज़दूरों के बीच
उनकी आँखों में तैर रही थी
एक स्थायी बेबसी
नागार्जुन की चकित-विस्मित
बिजली छींटने वाली आँखों के बीच
मित्रो,
मैं देख रहा हूँ
इन सारी आँखों को
तुम्हारी आँखों में
मैं पढ़ना चाह रहा हूँ
वह भाषा
जिसने तुम्हें हमारे साथ
खड़ा कर दिया है
बिचाली घाट पर
पुआल लदी नौकाओं से दूर
बीच हुगली में कुछ मित्रों के साथ
या फिर मज़दूरों की झुग्गियों में
मैं पढ़ना चाह रहा हूँ
उन माताओं की आँखों की भाषा
जिसका बेटा बेरोज़गार है
पति बीमार पड़ा है
लम्बे समय से खोली में
खोली के आगे
अन्धकार की तरह पसरी है
उसकी ज़िन्दगी
भर गई है दहशत
मेरे, तुम्हारे और
उन सारे कवि-मित्रों के अन्दर
उनकी आँखें कब पा सकेंगी
तुम्हारी आँखों की चमक
जनकवि नागार्जुन की
चकित-विस्मित आँखें
कब पा सकेंगी आश्वस्ति की रोशनी
हमारे साथ के कवि-मित्र
उन आँखों में कब बो सकेंगे
विश्वास के बीज
इसका जवाब कब दे सकेंगी
नाव में बैठीं
दोपहर की उजली किरनें ?