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दोपहर / कविता महाजन
Kavita Kosh से
मैं उठाकर देखती हूँ रिसीवर
एक बार फिर यह सुनिश्चित करने के लिए
कि फ़ोन चालू है...
पंखा घूम रहा है मतलब बिजली खेल रही है
तारों के भीतर, फिर भी एक मरतबा
मैं घण्टी बजाकर देखती हूँ...
निहारकर आती हूँ लैटरबॉक्स,
बहुत-सी चिट्ठियाँ समा जाएँगी छोटी-बड़ी उसमें
एकाध पत्रिका भी....
खिड़की खोलकर बाहर देखते हुए लगता है
इतना भी नहीं चिलचिला रही है धूप
कि कोई भी न फटक पाए...
दूर से आवाज़ें आ रही हैं, सारी
लोकल ट्रेनें चल रही हैं, ऑटोरिक्शा
कर रहे हैं आवाजाही
किसी भी तरह का बन्द वगैरह नहीं होगा
या कहीं दंगा-फ़साद भी नहीं...
मैं काट रही हूँ चक्कर
बैठक से रसोई में
रसोई से बैडरूम में
बैडरूम से फिर बैठक में...
उठाकर देखती हूँ रिसीवर...
मूल मराठी से अनुवाद : सरबजीत गर्चा