भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोपहर / बेढब बनारसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दोपहर की विकट बेला --
धूप गहरी पड़ रही थी,
आग नभ से झड रही थी;
टेंपरेचर बिरहिनी का
या कहीं पर बढ़ गया था
मैं पहन कर एक गमछा था पड़ा लेटा अकेला
खट खटाया द्वार किसने
पियनने या किसी मिसने
या नया विद्यार्थी है
या कि भिक्षुक स्वार्थी है
या चला नवजात कवि लेकर करक्शन का झमेला
एक बाला थी, परी थी
धूप में जैसे तरी थी
दयानिधि यह 'बून' कैसा?
'नून' में यह 'मून' कैसा?
हूर को अल्ला मियाँने आज धरती पर ढकेला
रंग था पक्का करौंदा .
आँख थी जामुन फरेंदा,
रस भरा वह गोल मुखड़ा,
लखनऊ का था सफेदा .
देखते ही हृदय पर मारा किसी ने एक ढेला
हृदय तृष्णा मैं बुझाऊँ
और उसे भीतर बुलाऊँ
पर हृदय भी काँपता है
क्या पड़ोसी झांकता है,
जायगा मेरे हृदय में आज रस या विष उड़ेला
देखकर कोमल अदासे
और थोड़ा मुसकराके
कर हमारी ओर फैला
कहा उसने शब्द ऐसा --
एक बहुरुपिया खड़ा हूँ धूप में, कुछ इनाम दे-ला