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दोमुँहे / शिव कुशवाहा
Kavita Kosh से
हवाओं का रूख
अब हो चला विषैला
समाज की सभ्यताओं को
झूठा साबित
करने के लिए
हो रहे षड्यंत्रों के बीच
बताना ज़रूरी है
दोमुँहों को।
कि तुम्हारी
बिजबिजाती बुद्धि में
भरा है सदियों पुराना
कूड़ा कचरा।
जो गाहे बगाहे
कुलबुलाने लगता है
सत्ता कि डोरी के
करीब पहुँच कर।
मदांधता में डूबे
इतिहास को बरगलाते
प्रश्नचिन्ह लगाते
इतिहास की महानता पर।
तुम्हारी जिह्वा कि अपंगता
साफ साफ कह गयी
कि अभी भी तुम
इतिहास को मिटाना
समझते हो अपनी बपौती।
समय रच रहा है अपना इतिहास
वो दिन दूर नहीं
जब ध्वस्त होते हुए दिखेंगे
तुम्हारे किले
जहाँ बैठकर रचते हो षड्यंत्र
समाज को तोड़ने का...