दोराहे पर
ठिठकी हैं
कुछ परछाइयाँ
उनकी पढने की उम्र है
पर कंधे पर बस्ते नहीं
खेलने की उम्र है
पर हाथों में खिलौने भी नहीं
उनके चेहरे
सांध्य बेला में
कीट-पतंगों से घिरे
पुष्प सरीखे नज़र आते हैं
उनकी आँखों में
तितलियों के
पर छूने की ललक नहीं
सब कुछ गिरा देने को आकुल
बेशुमार आँधियाँ हैं
वे देख रहे हैं
धरती को धुआँ-धुंआ होते हुए
वे देख रहे हैं
भीड़ को बसों और
गाड़ियों के शीशे तोड़ते हुए
हाथ बढ़ा
वे रोकना चाहते हैं
पूछना चाहते हैं कुछ सवाल
हर आते-जाते से
पर भींगे परिंदे से
फडफडा कर रह जाते हैं
उनके होंठ
नहीं रुकता कोई
कोई रुकता भी नहीं