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दोस्ती ने छीन ली, कुछ दुश्मनी ने छीन ली / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
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दोस्ती ने छीन ली, कुछ दुश्मनी ने छीन ली
थोड़ी-थोड़ी ज़िन्दगी मुझसे सभी ने छीन ली ।
अपना दुश्मन मैं अँधेरे को समझता था मगर
मेरी बीनाई तो मुझसे रोशनी ने छीन ली ।
आजकल गमलो मे पौधे उग रहे हैं हर तरफ़
इनके हिस्से की ज़मीं भी आदमी ने छीन ली ।
क्या गिला, कैसी शिकायत, कैसा ग़म, अफ़्सोस क्या
ज़िन्दगी जिसने अता की थी, उसी ने छीन ली ।
जान जानी थी गई, ’बेख़ुद’अब इससे क्या गरज़
तुमने ख़ुद दे दी किसी को या किसी ने छीन ली ।