दोहा संख्या 61 से 70
श्री जे जन रूखे बिषय रस चिकने राम सनेहँ। 
तुलसी ते प्रिय राम को कानन बसहिं कि गेहँ।61। 
जथा लाभ संतोष सुख रघुबर चरन सनेह। 
तुलसी जो मन खूँद सम कानन बसहुँ कि गेह।62। 
तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह । 
मूँड़ मुड़ायो बादिहीं भाँड़ भयो तजि गेह।63। 
तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और । 
सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर।64। 
तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत। 
अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत।65। 
सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि। 
जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि।66। 
तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज। 
राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरूराज।67। 
तुलसी रामहिं परिहरें निपट हानि सुन ओझ। 
सुरसरि गत सेाई सलिल सुरा सरिस गंगोझ।68।
राम दुरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह। 
भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह।69।  
साहिब दीनानाथ सेां  जब घटिहैं अनुराग। 
तुलसी तबहीं  भालतें भभरि भागिहैं भाग।70।