दोहा संख्या 181 से 190
श्री हौं हु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास। 
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।181। 
राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि। 
राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि।।182। 
राम राज संतोष सुख घर बन सकल सुपास । 
तरू सुरतरू सुरधेनु महि अभिमत भोग बिलास।183। 
खेती बानि बिद्या बनिज सेवा सिलिप सुकाज। 
तुलसी सुरतरू सरिस सब सुफल राम के राज।184। 
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज। 
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र के राज।185। 
कोंपें सोच न पोच कर करिअ निहोर न काज। 
तुलसी परमिति प्रीति की रीति राम कें राज।186 
मुकर निरखि मुख रामभ्रू गनत गुनहि दै दोष। 
तुलसी से सठ सेवकन्हि लखि जनि परहिं सरोष।187। 
सहसनाम मुनि भनित सुनि तुलसी बल्लभ नाम। 
सकुचित हियँ हँसि निरखि सिय धरम धुरंधर राम।188। 
गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसकत पग पानि। 
मन बिहँसे  रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि।189। 
तुलसी बिलसत नखत निसि सरद सुधाकर साथ। 
मुकुता झालरि झलक जनु राम सुजसु सिसु हाथ।190।