भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 32

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 310 से 320

अन जल सींचे रूख की छाया तें बरू घाम।
तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रबीन को काम।311।

एक अंग जो सनेहता निसि दिन चातक नेह।
तुलसी जासेंा हित जगै वहि अहार वहि देह।312।

बिबि रसना तनु स्याम है बंक चननि बिष खानि।
तुलसी जस श्रवननि सुन्यो समरप्यो आनि।313।

आपु ब्याध को रूप धरि कुहौ कुरंगहि राग।
तुलसी जो मृग मन मुरै परै प्रेम पट दाग।314।

तुलसी मनि निज दुति फनिहि ब्याधहि देउ दिखाइ।
बिछुरत होइ न आँधरो ताते प्रेम न जाइ।315।

जरत तुहिन लखि बनज बन रबि दै पीठि पराउ।
उदय बिकस अथवत सकुच मिटै न सहज सुभाउ।316।

देउ आपनें हाथ जल मीनहि माहुर घोरि।
तुलसी जिये जो बारि बिनु तौ तु देहि कबि खोरि।317।

मकर उरग दादुर कमठ जल जीवन जल गेह।
तुलसी एकै मीन को है साँचिलो सनेह। 318।

तुलसी मिटे न मरि मिटेहुँ साँचो सहज सनेह।
मेारसिखा बिनु मूरिहूँ पलुहत गरजत मेह।319।

सुलभ प्रीति प्रीतम सबै कहत करत सब कोइ।
तुलसी मीन पुनीत ते त्रिभुवन बड़ो न कोइ।320।