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दोहा मन्दाकिनी, पृष्ठ-67 / दिनेश बाबा
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दुख पावै प्राणी मतर कारण छै अज्ञान
सुख-दुख केवल भाव छै, शाश्वत छै बस ज्ञान
530
लोग अधिकतर छै भ्रमित, सब छै मोहाविष्ठ
नारद, विश्वामित्रा सें लेने गुरू वशिष्ठ
531
सच में राजा जनक ही, छेलै एक विदेह
लोभ, मोह संबन्ध सें, ऊँच्चो निःसंदेह
532
दानव, मानव, देवता, सबकेॅ व्यापै मोह
राम प्रभु कानलै जबेॅ, होलै सिया विछोह
533
आँख छिपावै नैं कभी, अन्तर्मन के भाव
कारण परगट होय छै, वहिने बनी सुभाव
534
सत, रज, तम गुण कारनें, जीव धरै छै देह
काम, क्रोध, ममता, घृना, लोभ, मोह, मद, नेह
535
विस्नु के माया छेलै, आ माया के खेल
नारी रूपो में जबेॅ, नारद परिनत भेल
536
कौतुक सें भरलो लगै, नारायन हर बार
मीन, कूर्म, नृसिंह, परशु, राम, कृष्न अवतार