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दोहा सप्तक-08 / रंजना वर्मा

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तुलसी को बिरवा समझ, पर आँगन में रोप
स्वयं शांत हो जायगा, रोग शोक अरु कोप।।

कहें चिकित्सक नित्य ही, करो नयन का दान।
बिना नयन के किस तरह, हो प्रिय की पहचान।।

तड़प रही है दामिनी, घन का सीना चीर।
कोना कोना ढूढ कर, बरसाती है नीर।।

सहम गयी गंगाजली, चुप हो बैठा शंख।
धरम करम सब उड़ गए, लगा हवन के पंख।।

उमड़ घुमड़ बदरा घिरे, बरस रही जल - धार।
उमगा कण कण भूमि का, मिला गगन का प्यार।।
 
सफर बहुत लंबा हुआ, टूट चली है नाव।
थका हृदय कहने लगा, डालें कहीं पड़ाव।।

नाव फँसी मझधार में, छूट गयी पतवार।
दूर किनारा है अभी, लगा साँवरे पार।।