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दोहा सप्तक-14 / रंजना वर्मा
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जीवन नित संग्राम है, दें किसको सम्मान।
संकट में जो साथ दे, उसको अपना जान।।
खिला विधाता ने दिया, काँटों बीच गुलाब।
हर आक्रामक हाथ को, अच्छा मिला जवाब।।
उन्हें मसलने के लिये, अब न बढ़ाना हाथ।
कलियाँ अब खिलने लगीं, हैं काँटों के साथ।।
आओ मेरे घर कभी, हे गणपति गण नाथ।
पायें करुणा आपकी, मन हो सबल सनाथ।।
रखिये हृदय पवित्र नित, यह ही सच्चा ज्ञान।
जब तक साँस चला करे, करिये जग कल्यान।।
इतराते अस्तित्व पर, करते हैं अभिमान
जहाँ न हो तरुवर कहीं, रेण वृक्ष का मान।।
पहने चोला सन्त का, करते हरदम पाप।
ऐसे ढोंगी सन्त से, बच कर रहिये आप।।