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दोहा सप्तक-18 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
है लोगों के सर चढ़ा, कैसा आज जूनून।
गलियों में फैला रहे, हैं इंसानी खून।।
धरती ने धोखा दिया, रहा नहीं विश्वास।
जहर हवाओं में घुल, लगी उखड़ने साँस।।
दीवारें दुश्मन हुईं, छत विनाश के साथ।
गैर हुए अपने सभी, कौन बढ़ाये हाथ।।
अम्बर टूटा काँप कर, थर थर डिगा दिगन्त।
पल भर में मानो हुआ, सुघर सृष्टि का अंत।।
मौसम की अटखेलियाँ, बिखरे कितने रंग।
दुनियाँ छोटी पड़ गयी, ऐसी उठी उमंग।।
खेत खेत हरिया गये, झुक झुक जाती डाल।
पत्ता पत्ता पूछता, फिरता कई सवाल।।
एक प्रश्न तिरता रहा, दिशा दिशा सब ओर।
आशाओं के आम्र - वन, कब आयेंगे बौर।।